कहानी संग्रह >> चित्रा मुद्गल संकलित कहानियां चित्रा मुद्गल संकलित कहानियांचित्रा मुदगल
|
1 पाठकों को प्रिय 22 पाठक हैं |
चित्राजी की कहानियों का एक विशिष्ट चयन...
नए स्त्री-विमर्श की कथाकार हैं चित्रा मुद्गल। यह संग्रह
चित्राजी की कहानियों का एक विशिष्य चयन है। इसमें उनके विविध कथारंग
देखने को मिलेंगे, जिनमें आप उनकी कथा-चेतना का विकास चीन्ह सकते हैं। आम
आदमी अपने आपको किसी न किसी पात्रा के रूप में इन कहानियों में पाता है।
चित्रा मुद्गल की कहानियां अनायास ही पाठकों को अपनी ओर खींचती हैं। चाहे ‘जिनावर’ का पात्र असलम हो या फिर ‘पाली का आदमी’ का किरदार रवि हो। स्त्री को कई कोणों से देखते हुए उसकी स्थिति पर विचार करता है चित्राजी का कथाकार मन। ‘लकड़बग्घा’ की ‘पछांहवाली’, ‘केंचुल’ की ‘कमल’, ‘भूख’ की ‘लक्ष्मा’, ‘नीले चौखने वाला कंबल’ की ‘टिकैतिन कक्की’ तथा प्रेतयोनि की (छात्रा) अनिता गुप्ता इस दृष्टि से यादगार चरित्र हैं। चित्रा मुद्गल की विशेषता यह है कि उनके पात्र जीवन से सीखे लेते दिखते हैं। लेखिका ने आम आदमी के जीवन की घटनाओं व छोटी-छोटी स्थितियों को बड़ी खूबी के साथ एक सूत्र में पिरोया है और यही कथाकार की ताज़गी है जो अपने पाठकों के साथ संवाद करती दिखती है।
इस संकलन में चित्रा जी की सभी कहानियां भारतीय परिवेश की वे रचनाएं हैं जिनमें आम आदमी का चरित्र उभरकर आया है। विभिन्न विसंगतियों को बड़े सलीके से चित्रा मुद्गल ने दर्शाया है, उकेरा है, जीवंत किया है।
श्रीमती चित्रा मुद्गल (10 दिसंबर 1944 को चेन्नई में जन्मी) मुंबई में शिक्षित। दूरदर्शन के लिए टेलीफ़िल्म ‘वारिस’ का निर्माण किया। साथ ही कई कहानियों को आधार बनाकर ‘एक कहानी’, ‘मझधार’, ‘रिश्ते’ जैसे चर्चित धारावाहिकों में फ़िल्माया गया।
अब तक दर्जन से ऊपर कहानी संग्रह, कई उपन्यास, बाल उपन्यास, संपादित अनगिनत महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित। बहुचर्चित उपन्यास ‘आवां’ पर बिड़ला फाउंडेशन का ‘व्यास सम्मान’ पहला अंतर्राष्ट्रीय ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’, लंदन (इंग्लैंड), हिंदी अकादेमी (दिल्ली) व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
इन दिनों अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं को साकार करने में रत एवं सक्रिय।
चित्रा मुद्गल की कहानियां अनायास ही पाठकों को अपनी ओर खींचती हैं। चाहे ‘जिनावर’ का पात्र असलम हो या फिर ‘पाली का आदमी’ का किरदार रवि हो। स्त्री को कई कोणों से देखते हुए उसकी स्थिति पर विचार करता है चित्राजी का कथाकार मन। ‘लकड़बग्घा’ की ‘पछांहवाली’, ‘केंचुल’ की ‘कमल’, ‘भूख’ की ‘लक्ष्मा’, ‘नीले चौखने वाला कंबल’ की ‘टिकैतिन कक्की’ तथा प्रेतयोनि की (छात्रा) अनिता गुप्ता इस दृष्टि से यादगार चरित्र हैं। चित्रा मुद्गल की विशेषता यह है कि उनके पात्र जीवन से सीखे लेते दिखते हैं। लेखिका ने आम आदमी के जीवन की घटनाओं व छोटी-छोटी स्थितियों को बड़ी खूबी के साथ एक सूत्र में पिरोया है और यही कथाकार की ताज़गी है जो अपने पाठकों के साथ संवाद करती दिखती है।
इस संकलन में चित्रा जी की सभी कहानियां भारतीय परिवेश की वे रचनाएं हैं जिनमें आम आदमी का चरित्र उभरकर आया है। विभिन्न विसंगतियों को बड़े सलीके से चित्रा मुद्गल ने दर्शाया है, उकेरा है, जीवंत किया है।
श्रीमती चित्रा मुद्गल (10 दिसंबर 1944 को चेन्नई में जन्मी) मुंबई में शिक्षित। दूरदर्शन के लिए टेलीफ़िल्म ‘वारिस’ का निर्माण किया। साथ ही कई कहानियों को आधार बनाकर ‘एक कहानी’, ‘मझधार’, ‘रिश्ते’ जैसे चर्चित धारावाहिकों में फ़िल्माया गया।
अब तक दर्जन से ऊपर कहानी संग्रह, कई उपन्यास, बाल उपन्यास, संपादित अनगिनत महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित। बहुचर्चित उपन्यास ‘आवां’ पर बिड़ला फाउंडेशन का ‘व्यास सम्मान’ पहला अंतर्राष्ट्रीय ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’, लंदन (इंग्लैंड), हिंदी अकादेमी (दिल्ली) व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
इन दिनों अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं को साकार करने में रत एवं सक्रिय।
अनुक्रम
जिनावर
‘‘तांगेवालेऽऽऽऽ...रुकना
भईऽऽऽऽऽ!’’
पुकार पीछे से आई थी। हल्की लगाम खींचकर उसने सवारी को रोका। दो-चार डग भरकर सरवरी ढीली-सी खड़ी हो गई। बाईं टांग को उठाकर झटका देती-सी, मानों टांग पर चढ़े आ रहे किसी कीड़े-मकोड़े को झटककर परे फेंक देने को व्याकुल हो। गली से मुख्य सड़क तक आते हुए ऐसी कोई हरकत उसने नहीं की। बस अभी ही उसने बाईं टांक झटकनी शुरू की। उतरकर देख लेना चाहिए उसे अपनी गद्दी से हिलने नहीं दिया। आगे को झुककर, उसने गर्दन मोड़कर पीछे की ओर देखा। पांच बुरकेवालियां कनिया में दो औलादें दबाए, तीन को कंधे से दबोच उन्हें लगभग घसीटती हुई-सी ‘फद-फद’ करती तांगे की ओर दौड़ी चली आ रही दिखीं।
उनमें से ठमके कद वाली ने अपनी हांफ को नियंत्रित करने की चेष्टा करते हुए गर्दन उंची तानी–‘‘चलेंगे, भाई जान ?’’
‘‘जाना किधर है, बीबी ?’’
‘‘बगल में चावड़ी बाज़ार।’’ कनिया से खिसकती औलाद को उचकाकर उसने बाजू में कसा।
असलम कुछ सोच में पड़ गया। पांच ख़ासी तंदुरुस्त जनानी; कनिया में दो; उंगलियां घरे दो-कुल जमा नौ सवारी ! चार आधी ही सही। नामुमकिन। छूंछा तांगा ही सरवरी कढ़िलाती हुई-सी ढो पा रही। सवारियों की वारात दम निचोड़ लेगी ? न, कुल्हाड़ी नहीं देनी टखनों पर।
टालने के लिए अनिच्छा से मुंह घुमा लिया सीध में–‘‘दस रुपये लगेंगे...बीबी।’’
‘‘दस रुपये...लो सुनो इनकी अति !’’ ठमके कदवाली ने मुंह बाकर अपनी संगवालियों से आंखें उचकाईं। फिर तमककर उसकी ओर देखा।–‘‘नए लगते हो शहर में ? जाना कितना ? ये सामने रहा पुल के नीचे चौरास्ता...चौरास्ता पार करते ही जामा मस्जिद वाली गली...गली लांघ के मुड़े नहीं कि मस्जिद के पीछे वो रहा चावड़ी बाज़ार। सोच-समझकर तो मुंह खोलो, मियां !’’
‘‘सोच समझकर ही बोल रहा बीबी, रोज़ का धंधा है। सवारियां भी तो देखो !’’ जाना नहीं था उसे। पक्का। फिजूल की बहस में फंस गया। लगता था कि दस की बात सुनते ही जनानियां मुंह बिदकाकर आगे बढ़ लेंगी।
‘‘चलो, आठ ले लो, आग बरस रही सिर पर...बच्चे झुलस रहे।’’ उनमें से लंबे कदवाली ने ऊबकर ‘न तेरी न मेरी’ वाले लहज़े में उसे पटाना चाहा।
‘‘सवाल ही नहीं उठता, बीबी।’’ वहां से हटने के ख़याल से उसने सरवरी की लगाम खींची। सवारियों के लिए ही निकला है घर से तय करके कि सिंगल या ज़्यादा-से-ज़्यादा डबल सवारी ही बिठाएगा तांगे पर। हालांकि सिंगल या डबल सवारी रिक्शा छोड़, तांगे पर मुश्किल से ही बैठती हैं। कुनबा संग हो तो तांगा किफ़ायती पड़ता है।
‘‘मिज़ाज न दिखाओ, मियां, ठहरो, ठहरो...’’ उसी ठमके कदवाली ने उसकी उद्दंडता बरदाश्त करते हुए अपना ग़ुस्सा चबाया और साथवालियों की ओर मुड़ी—‘‘जुदा-जुदा रिक्शे के झमेले में पड़ने से बेहतर होगा तांगा...’’ वाक्य अआधूरा छोड़कर उसने गर्दन नीचे किए हुए हथियार डाले—‘‘चलो मियां, तुम्हारी ही ज़िद्द सही...’’ आगे बढ़कर उसने औलादों को तांगे पर चढ़ने का इशारा किया।
लो, फंसे ! अब छुटकारा नहीं। मजबूरन उसने सरवरी की लगाम खींची।
खड़ी सरवरी अब तक बाईं टांग झटक रही है। जनानियों से झिक-झिक में लगा रहा। उतरकर उसकी टांग नहीं देख सकता था ? कुछ उसे हो ज़रूर रहा है। कभी नहीं देखा इस तरह से टांग झटकते। बढ़ते बोझ से तांगा हिल रहा। उसका आशंकित हृदय कांप उठा। कहीं ऐसा न हो कि आशक्त सरवरी बीच सड़क पर चक्कर खाकर बैठ जाए और सवारियां धक्का खाए भेट के ढेले-सी लुढ़ककर रास्ते पर हों। आगे को झुककर उसने सरवरी के पुट्ठे सहलाए। सहलाहट के संग पुचकारा-उंगलियों में गूंगी चिरौरी भर।
फिर वही भ्रमं तांगा हिल रहा है या सरवरी की टांग कांप रहीं ?
उसके बोल सुनते ही सरवरी ‘झप्प’ से आगे को बढ़ दी। सुस्त चाल चलते हुए। साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि चलने में उसे भयंकर तकलीफ हो रही। लेकिन वह भी जैसे मालिक के नमक का हक़ अदा करने को कटिबद्ध हो। असलम बेबसी से तप आया। उसके पास कास कोई जादुई चिराग़ होता तो वह तत्काल अपनी सरवरी को अपनी जगह बिठाकर ख़ुद तांगे में जुत जाता। सरवरी की सुस्त टापें उसके कलेजे को खूंद रही हैं। ख़ुदा का शुक्र है, पुल तक खींच लाई है वह तांगा। आगे भी खींच ले जाए तो ग़नीमत समझो...
ज़ुबैदा की नाबदानी ज़ुबान को क्या कहे ! न जाने कौन-से जन्म की दुश्मनी निकाल रही है कमजात उसके और सरवरी के संग।
बीस-बाईस रोज़ से ज़मीन पर औंधी पड़ी तड़फड़ा रही है सरवरी। पुचकारकर खड़ा करता है। तो घंटे-खांड़ बाद ही पसर लेती है घुटने मोड़। कीच-भरी आंखें मींच। घरेलू उपाय आजमाकर थक गया। जिस-तिस के नुस्खे भी बेअसर रहे। घबराकर वज़ीराबाद पुल के उस पार की बस्ती में रह रहे जुम्मन हकीम के पांव पकड़ लिए कोई भी उपाय करें। बस, उसकी सरवरी को चंगी कर दें। पहले नथुनों में छाले उदके, देखते-दखते टखनों में उतर आए। देह निचुड़ने लगी। रोज़ी-रोटी है। उठकर खड़ी नहीं होगी तो उसके लौंड़े-लौडियां भूखों मरेंगे। जुम्मन मियां ने ढाढ़स बंधाया और उम्मीद दी कि वह धैर्य रखे। मर्ज़ उनकी पकड़ में आ गया है। ख़ुदा ने चाहा तो हफ़्ते-भर में उठ खड़ी होगी उसकी सरवरी।
जुम्मन मियां ने उसे एक और सलाह दी—‘‘जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर काला कंबल ओढ़े एक अधनंगा फ़कीर बैठता है। असाध्य रोगियों और दुखियों को गालियों-भीगी दुआओं का काला तागा बांटता है। बहुतों का कष्ट दूर हुआ है उस चमत्कारी काले तागे से। फकीर से दुआओं का काला गाता लाकर वह फ़ौरन सरवरी की किसी टांग में बांध दे। दुआ व सही दवा ही अब सरवरी का इलाज है।
ज़ुम्मन मियां की जड़ी-बूटी के काढ़े पिलाते हफ़्ता और निकल गया। सरवरी के टखनों के छाले पीप उगलने लगे। लक्षण शुभ नहीं थे। बगल के करीम ने उसे सलाह दि की नीम-हकीम के चक्करों में पड़ा हुआ वह समय और पैसा नष्ट न करे। ज़ुम्मन मियां के वश का नहीं सरवरी का रोग। फ़ौरन जाकर वह किसी जानवर के इलाज के लिए कोई सरकारी अस्पताल या दवाख़ाना। लेकिन बेहतर यही होगा कि वह किसी प्राइवेट को ही दिखलाए। पैसे का मुंह न जोहे। पैसा ज़रूर ख़र्च होगा तगड़ा, मगर एक-दो सुई लगते ही शर्तिया उठ खड़ी होगी सरवरी।
उसकी उम्मीद के जुगनुओं में रोशनी टिमटिमाने लगी। घर में फांके पड़ रहे थे। जुबैदा के पांव पकड़ लिए उसने मायके की पाव-भर की झांझें थीं उसकी। फुसलाया, बहलाया। रोज़ी-रोटी का वास्ता दिया। झांझें ले जाकर मोहल्ले के परली तरह वाले सुनार को अधिये-तिहाये भाव में बेचकर डॉक्टर की फीस भरी, और सुइयां लगवाईं सरवरी को। असर न होते देख चौथे रोज़ डॉक्टर ने हाथ झाड़ लिए। सरवरी को ग्लेन्डरासन धोक्या’ रोग हुआ है। रोग बिगड़ गया है। सरवरी को उनके पास पहले न लाकर उसने भयंकर भूल की। अब दवा नहीं, कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है।
सुनकर वह बेजान हो आया। कहां क्या क़सर रह गई सरवरी के इलाज में उससे। कुछ तो हुआ ही है। देशी दवाइयां आदमी ही नहीं, अब जिनावरों पर भी बेअसर होने लगी हैं। वरना पुरखों ने कौन सुइयां लगवाकर परवरिश की इनकी ? महीना निकल गया सरवरी की तीमारदारी में। हाथ लग रही है नाउम्मीदी। कोठरी में पांव देते हुए कलेजा कांपता है उसका। जुबैदा की ज़ुबान चोर-देखे कुत्ते-सी उसे देखते ही बेतहाशा भौंकने लगती है। तरियाई हुई–‘‘नामुरादो ! कहां से लाऊं दोनों जून तुम्हारे पेट में डालने को...एक मैं ही साबुत बची हूं इस घर में, सो कहो तो अपनी बोटियां काट के चढ़ा दूं हांडी में पकने ? मति मारी गई है। उसी मरी रांड को सहलाता रहता है रात-दिन। बर्तन-भांडे तक फूंक दिए इलाज में। सबको डकारकर ही मरेगी डायन। अरे, और भी जानें हैं कुनबे में कमबख़्त ! उनकी है परवाह मर्दुए ? आख़िर इन आठ-आठ पिल्लुओं को क्या दूं मुंह में—अंगारे ? घोड़ी...घोड़ी...घोड़ी न हो गई रंडी सौत हो गई मेरी। नहीं रही तांगा खींचने के क़ाबिल तो घर क्यूं फूंक रहा उसके पीछे ? लात लगा हरामज़ादी को और परे कर! मर्द है मर्द ! दिहाड़ी कर कहीं...रिक्शा खींच किराये पर। मगर तू है कि दिन-भर उसकी टांगों में घुसा उसके पुट्ठे सहलाता रहेगा कमीने....’’
‘‘तड़ेक ! तड़ाक !’’ अपना हाथ नहीं रोक पाया था सुबह–‘‘ख़ुदा का ख़ौफ़ खा, बदज़ुबान ! आग लगे तरी गज-भर की ज़ुबान को, कुतिया ! जिस रोज़ बैठ गई न ये तेरी सौत, संखिया खाने की नौबत आ जाएगी पूरे कुनबे की, अनाप-शनाप न बकाकर...समझी।’’
‘‘क्यों, क्या हमारे हाड़-गोड़ भी संग ले जाएगी रांड ?’’
‘‘मुंह बंद कर, ज़ुबैदा...’’
‘‘मुंह सी तू, और संभाल अपने इन पिल्लुओं को...बैठा लेना इनके लिए कोई दूसरी अम्मा, जो पानी घूंट-घूंट के तेरी देह भी गरमाती रहे और ससुरे पिल्लुओं को पालती रहे...अपने बस की नहीं ये तेरी ये फ़ाक़ेमस्ती...पहली जा के दूसरे के यहां क्यों बैठ गई...अब समझ में आ रहा।’’
‘तड़’, ‘तड़’, ‘तड़’ ! उसका झन्नाटेदार हाथ खाकर बुंबुआती हुई ज़ुबैदा फ़र्श पर औंधे हो गई।
कच्चे बरामदे में एक ओर खड़े तांगे की ओट में बंधी सरवरी पर निगाह गई असलम की। पता नहीं मन में क्या आया कि वह सीधा सरवरी की ओर बढ़ गया। कुछ देर उसे सहलाता-घूरता रहा। फिर खूंटे से खोलकर उसे बलात खड़ा करने की चेष्टा करने लगा। अशक्त सरवरी ने जैसे उसके मनोभाव पढ़ लिए। उसे स्वयंमेव उठने की असफल कोशिश की कि घुटने लड़खड़ाए। वह बैठ गई, लेकिन अपनी कोशिश उसने नहीं छोड़ी। कुछ पलों बाद मवाद से चटचटाते टखनों पर ज़ोर दे उचकती हुई-सी दोबारा खड़े होने के प्रयास में एकाएक सफल हो वह एकदम से तनकर सीधी खड़ी हो गई।
उसके कान के निकट मुंह ले जाकर असलम लगभग कांपती आवाज़ में फुसफुसाया–‘‘एकाध फेरा हो जाए, सववरी ! दो रोज़ से चूल्हे में आग नहीं पड़ी !’’
उसे अचरज हुआ। तांगे में जुती हुई सरवरी ने मोहल्ले की गली पार करते हुई राई-रत्ती यह आभास नहीं होने दिया कि वह महीने-भर से बीमार चल रही है और दो डग भरने में भी उसे घोर कष्ट हो रहा।
ज़ुबैदा का ग़ुस्सा अनुचित नहीं। लेकिन वह करे तो भी क्या करे ? ईंट-गारा ढोना उसके बूते का नहीं। तांगे की गद्दी से लगातार चिपकी देह को जंग लग चुका है। हाथ चुबका उठा हवा में हाथ-भर से ज़्यादा डोल-फिर नहीं पाते। अपनी टांगों के इस्तेमाल की उसे आदत नहीं रही। सरवरी ने कभी मौक़ा ही नहीं दिया। कोठरी के अहाते से, कोठरी के भीतर तक-वह यही मसूस करता कि उतने क़दम भी जो वह चलकर भीतर आता है, अपनी नहीं, सरवरी की ही टांगों से। आंखें खोलते ही तांगा देखा। लोरी की जगह घोड़ों की हिनहिनाहट सुनी। उन्हीं की टांगों के बीच गुल्ली डंडा खेला। लीद से लफोंदी ज़मीन पर फिरकियां नचाईं। अब्बा तांगा चलाते थे। अब्बा के अब्बू तांगा चलाते थे बूढ़ों की उभरी नसों-सी आगरे की तंग गलियों में। उसकी मसें भीगते ही अब्बा परिवार समेत दिल्ली आ गए। एक रोज बोले उससे–‘नई चली फिटफिटिया पर बैठनें को शैकिया रही हैं सवारियां इधर। दिल्ली चलते हैं, बरखुरदार ! बड़ा शहर है। वहां फिटफिटिया ही फिटफिटाया भरी हुई हैं सड़कों पर। सवारियां तांगा देख ललकती हैं बैठने को। सुना है, किराया भी मुंहमांगा मिलता है....’
पुकार पीछे से आई थी। हल्की लगाम खींचकर उसने सवारी को रोका। दो-चार डग भरकर सरवरी ढीली-सी खड़ी हो गई। बाईं टांग को उठाकर झटका देती-सी, मानों टांग पर चढ़े आ रहे किसी कीड़े-मकोड़े को झटककर परे फेंक देने को व्याकुल हो। गली से मुख्य सड़क तक आते हुए ऐसी कोई हरकत उसने नहीं की। बस अभी ही उसने बाईं टांक झटकनी शुरू की। उतरकर देख लेना चाहिए उसे अपनी गद्दी से हिलने नहीं दिया। आगे को झुककर, उसने गर्दन मोड़कर पीछे की ओर देखा। पांच बुरकेवालियां कनिया में दो औलादें दबाए, तीन को कंधे से दबोच उन्हें लगभग घसीटती हुई-सी ‘फद-फद’ करती तांगे की ओर दौड़ी चली आ रही दिखीं।
उनमें से ठमके कद वाली ने अपनी हांफ को नियंत्रित करने की चेष्टा करते हुए गर्दन उंची तानी–‘‘चलेंगे, भाई जान ?’’
‘‘जाना किधर है, बीबी ?’’
‘‘बगल में चावड़ी बाज़ार।’’ कनिया से खिसकती औलाद को उचकाकर उसने बाजू में कसा।
असलम कुछ सोच में पड़ गया। पांच ख़ासी तंदुरुस्त जनानी; कनिया में दो; उंगलियां घरे दो-कुल जमा नौ सवारी ! चार आधी ही सही। नामुमकिन। छूंछा तांगा ही सरवरी कढ़िलाती हुई-सी ढो पा रही। सवारियों की वारात दम निचोड़ लेगी ? न, कुल्हाड़ी नहीं देनी टखनों पर।
टालने के लिए अनिच्छा से मुंह घुमा लिया सीध में–‘‘दस रुपये लगेंगे...बीबी।’’
‘‘दस रुपये...लो सुनो इनकी अति !’’ ठमके कदवाली ने मुंह बाकर अपनी संगवालियों से आंखें उचकाईं। फिर तमककर उसकी ओर देखा।–‘‘नए लगते हो शहर में ? जाना कितना ? ये सामने रहा पुल के नीचे चौरास्ता...चौरास्ता पार करते ही जामा मस्जिद वाली गली...गली लांघ के मुड़े नहीं कि मस्जिद के पीछे वो रहा चावड़ी बाज़ार। सोच-समझकर तो मुंह खोलो, मियां !’’
‘‘सोच समझकर ही बोल रहा बीबी, रोज़ का धंधा है। सवारियां भी तो देखो !’’ जाना नहीं था उसे। पक्का। फिजूल की बहस में फंस गया। लगता था कि दस की बात सुनते ही जनानियां मुंह बिदकाकर आगे बढ़ लेंगी।
‘‘चलो, आठ ले लो, आग बरस रही सिर पर...बच्चे झुलस रहे।’’ उनमें से लंबे कदवाली ने ऊबकर ‘न तेरी न मेरी’ वाले लहज़े में उसे पटाना चाहा।
‘‘सवाल ही नहीं उठता, बीबी।’’ वहां से हटने के ख़याल से उसने सरवरी की लगाम खींची। सवारियों के लिए ही निकला है घर से तय करके कि सिंगल या ज़्यादा-से-ज़्यादा डबल सवारी ही बिठाएगा तांगे पर। हालांकि सिंगल या डबल सवारी रिक्शा छोड़, तांगे पर मुश्किल से ही बैठती हैं। कुनबा संग हो तो तांगा किफ़ायती पड़ता है।
‘‘मिज़ाज न दिखाओ, मियां, ठहरो, ठहरो...’’ उसी ठमके कदवाली ने उसकी उद्दंडता बरदाश्त करते हुए अपना ग़ुस्सा चबाया और साथवालियों की ओर मुड़ी—‘‘जुदा-जुदा रिक्शे के झमेले में पड़ने से बेहतर होगा तांगा...’’ वाक्य अआधूरा छोड़कर उसने गर्दन नीचे किए हुए हथियार डाले—‘‘चलो मियां, तुम्हारी ही ज़िद्द सही...’’ आगे बढ़कर उसने औलादों को तांगे पर चढ़ने का इशारा किया।
लो, फंसे ! अब छुटकारा नहीं। मजबूरन उसने सरवरी की लगाम खींची।
खड़ी सरवरी अब तक बाईं टांग झटक रही है। जनानियों से झिक-झिक में लगा रहा। उतरकर उसकी टांग नहीं देख सकता था ? कुछ उसे हो ज़रूर रहा है। कभी नहीं देखा इस तरह से टांग झटकते। बढ़ते बोझ से तांगा हिल रहा। उसका आशंकित हृदय कांप उठा। कहीं ऐसा न हो कि आशक्त सरवरी बीच सड़क पर चक्कर खाकर बैठ जाए और सवारियां धक्का खाए भेट के ढेले-सी लुढ़ककर रास्ते पर हों। आगे को झुककर उसने सरवरी के पुट्ठे सहलाए। सहलाहट के संग पुचकारा-उंगलियों में गूंगी चिरौरी भर।
फिर वही भ्रमं तांगा हिल रहा है या सरवरी की टांग कांप रहीं ?
उसके बोल सुनते ही सरवरी ‘झप्प’ से आगे को बढ़ दी। सुस्त चाल चलते हुए। साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि चलने में उसे भयंकर तकलीफ हो रही। लेकिन वह भी जैसे मालिक के नमक का हक़ अदा करने को कटिबद्ध हो। असलम बेबसी से तप आया। उसके पास कास कोई जादुई चिराग़ होता तो वह तत्काल अपनी सरवरी को अपनी जगह बिठाकर ख़ुद तांगे में जुत जाता। सरवरी की सुस्त टापें उसके कलेजे को खूंद रही हैं। ख़ुदा का शुक्र है, पुल तक खींच लाई है वह तांगा। आगे भी खींच ले जाए तो ग़नीमत समझो...
ज़ुबैदा की नाबदानी ज़ुबान को क्या कहे ! न जाने कौन-से जन्म की दुश्मनी निकाल रही है कमजात उसके और सरवरी के संग।
बीस-बाईस रोज़ से ज़मीन पर औंधी पड़ी तड़फड़ा रही है सरवरी। पुचकारकर खड़ा करता है। तो घंटे-खांड़ बाद ही पसर लेती है घुटने मोड़। कीच-भरी आंखें मींच। घरेलू उपाय आजमाकर थक गया। जिस-तिस के नुस्खे भी बेअसर रहे। घबराकर वज़ीराबाद पुल के उस पार की बस्ती में रह रहे जुम्मन हकीम के पांव पकड़ लिए कोई भी उपाय करें। बस, उसकी सरवरी को चंगी कर दें। पहले नथुनों में छाले उदके, देखते-दखते टखनों में उतर आए। देह निचुड़ने लगी। रोज़ी-रोटी है। उठकर खड़ी नहीं होगी तो उसके लौंड़े-लौडियां भूखों मरेंगे। जुम्मन मियां ने ढाढ़स बंधाया और उम्मीद दी कि वह धैर्य रखे। मर्ज़ उनकी पकड़ में आ गया है। ख़ुदा ने चाहा तो हफ़्ते-भर में उठ खड़ी होगी उसकी सरवरी।
जुम्मन मियां ने उसे एक और सलाह दी—‘‘जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर काला कंबल ओढ़े एक अधनंगा फ़कीर बैठता है। असाध्य रोगियों और दुखियों को गालियों-भीगी दुआओं का काला तागा बांटता है। बहुतों का कष्ट दूर हुआ है उस चमत्कारी काले तागे से। फकीर से दुआओं का काला गाता लाकर वह फ़ौरन सरवरी की किसी टांग में बांध दे। दुआ व सही दवा ही अब सरवरी का इलाज है।
ज़ुम्मन मियां की जड़ी-बूटी के काढ़े पिलाते हफ़्ता और निकल गया। सरवरी के टखनों के छाले पीप उगलने लगे। लक्षण शुभ नहीं थे। बगल के करीम ने उसे सलाह दि की नीम-हकीम के चक्करों में पड़ा हुआ वह समय और पैसा नष्ट न करे। ज़ुम्मन मियां के वश का नहीं सरवरी का रोग। फ़ौरन जाकर वह किसी जानवर के इलाज के लिए कोई सरकारी अस्पताल या दवाख़ाना। लेकिन बेहतर यही होगा कि वह किसी प्राइवेट को ही दिखलाए। पैसे का मुंह न जोहे। पैसा ज़रूर ख़र्च होगा तगड़ा, मगर एक-दो सुई लगते ही शर्तिया उठ खड़ी होगी सरवरी।
उसकी उम्मीद के जुगनुओं में रोशनी टिमटिमाने लगी। घर में फांके पड़ रहे थे। जुबैदा के पांव पकड़ लिए उसने मायके की पाव-भर की झांझें थीं उसकी। फुसलाया, बहलाया। रोज़ी-रोटी का वास्ता दिया। झांझें ले जाकर मोहल्ले के परली तरह वाले सुनार को अधिये-तिहाये भाव में बेचकर डॉक्टर की फीस भरी, और सुइयां लगवाईं सरवरी को। असर न होते देख चौथे रोज़ डॉक्टर ने हाथ झाड़ लिए। सरवरी को ग्लेन्डरासन धोक्या’ रोग हुआ है। रोग बिगड़ गया है। सरवरी को उनके पास पहले न लाकर उसने भयंकर भूल की। अब दवा नहीं, कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है।
सुनकर वह बेजान हो आया। कहां क्या क़सर रह गई सरवरी के इलाज में उससे। कुछ तो हुआ ही है। देशी दवाइयां आदमी ही नहीं, अब जिनावरों पर भी बेअसर होने लगी हैं। वरना पुरखों ने कौन सुइयां लगवाकर परवरिश की इनकी ? महीना निकल गया सरवरी की तीमारदारी में। हाथ लग रही है नाउम्मीदी। कोठरी में पांव देते हुए कलेजा कांपता है उसका। जुबैदा की ज़ुबान चोर-देखे कुत्ते-सी उसे देखते ही बेतहाशा भौंकने लगती है। तरियाई हुई–‘‘नामुरादो ! कहां से लाऊं दोनों जून तुम्हारे पेट में डालने को...एक मैं ही साबुत बची हूं इस घर में, सो कहो तो अपनी बोटियां काट के चढ़ा दूं हांडी में पकने ? मति मारी गई है। उसी मरी रांड को सहलाता रहता है रात-दिन। बर्तन-भांडे तक फूंक दिए इलाज में। सबको डकारकर ही मरेगी डायन। अरे, और भी जानें हैं कुनबे में कमबख़्त ! उनकी है परवाह मर्दुए ? आख़िर इन आठ-आठ पिल्लुओं को क्या दूं मुंह में—अंगारे ? घोड़ी...घोड़ी...घोड़ी न हो गई रंडी सौत हो गई मेरी। नहीं रही तांगा खींचने के क़ाबिल तो घर क्यूं फूंक रहा उसके पीछे ? लात लगा हरामज़ादी को और परे कर! मर्द है मर्द ! दिहाड़ी कर कहीं...रिक्शा खींच किराये पर। मगर तू है कि दिन-भर उसकी टांगों में घुसा उसके पुट्ठे सहलाता रहेगा कमीने....’’
‘‘तड़ेक ! तड़ाक !’’ अपना हाथ नहीं रोक पाया था सुबह–‘‘ख़ुदा का ख़ौफ़ खा, बदज़ुबान ! आग लगे तरी गज-भर की ज़ुबान को, कुतिया ! जिस रोज़ बैठ गई न ये तेरी सौत, संखिया खाने की नौबत आ जाएगी पूरे कुनबे की, अनाप-शनाप न बकाकर...समझी।’’
‘‘क्यों, क्या हमारे हाड़-गोड़ भी संग ले जाएगी रांड ?’’
‘‘मुंह बंद कर, ज़ुबैदा...’’
‘‘मुंह सी तू, और संभाल अपने इन पिल्लुओं को...बैठा लेना इनके लिए कोई दूसरी अम्मा, जो पानी घूंट-घूंट के तेरी देह भी गरमाती रहे और ससुरे पिल्लुओं को पालती रहे...अपने बस की नहीं ये तेरी ये फ़ाक़ेमस्ती...पहली जा के दूसरे के यहां क्यों बैठ गई...अब समझ में आ रहा।’’
‘तड़’, ‘तड़’, ‘तड़’ ! उसका झन्नाटेदार हाथ खाकर बुंबुआती हुई ज़ुबैदा फ़र्श पर औंधे हो गई।
कच्चे बरामदे में एक ओर खड़े तांगे की ओट में बंधी सरवरी पर निगाह गई असलम की। पता नहीं मन में क्या आया कि वह सीधा सरवरी की ओर बढ़ गया। कुछ देर उसे सहलाता-घूरता रहा। फिर खूंटे से खोलकर उसे बलात खड़ा करने की चेष्टा करने लगा। अशक्त सरवरी ने जैसे उसके मनोभाव पढ़ लिए। उसे स्वयंमेव उठने की असफल कोशिश की कि घुटने लड़खड़ाए। वह बैठ गई, लेकिन अपनी कोशिश उसने नहीं छोड़ी। कुछ पलों बाद मवाद से चटचटाते टखनों पर ज़ोर दे उचकती हुई-सी दोबारा खड़े होने के प्रयास में एकाएक सफल हो वह एकदम से तनकर सीधी खड़ी हो गई।
उसके कान के निकट मुंह ले जाकर असलम लगभग कांपती आवाज़ में फुसफुसाया–‘‘एकाध फेरा हो जाए, सववरी ! दो रोज़ से चूल्हे में आग नहीं पड़ी !’’
उसे अचरज हुआ। तांगे में जुती हुई सरवरी ने मोहल्ले की गली पार करते हुई राई-रत्ती यह आभास नहीं होने दिया कि वह महीने-भर से बीमार चल रही है और दो डग भरने में भी उसे घोर कष्ट हो रहा।
ज़ुबैदा का ग़ुस्सा अनुचित नहीं। लेकिन वह करे तो भी क्या करे ? ईंट-गारा ढोना उसके बूते का नहीं। तांगे की गद्दी से लगातार चिपकी देह को जंग लग चुका है। हाथ चुबका उठा हवा में हाथ-भर से ज़्यादा डोल-फिर नहीं पाते। अपनी टांगों के इस्तेमाल की उसे आदत नहीं रही। सरवरी ने कभी मौक़ा ही नहीं दिया। कोठरी के अहाते से, कोठरी के भीतर तक-वह यही मसूस करता कि उतने क़दम भी जो वह चलकर भीतर आता है, अपनी नहीं, सरवरी की ही टांगों से। आंखें खोलते ही तांगा देखा। लोरी की जगह घोड़ों की हिनहिनाहट सुनी। उन्हीं की टांगों के बीच गुल्ली डंडा खेला। लीद से लफोंदी ज़मीन पर फिरकियां नचाईं। अब्बा तांगा चलाते थे। अब्बा के अब्बू तांगा चलाते थे बूढ़ों की उभरी नसों-सी आगरे की तंग गलियों में। उसकी मसें भीगते ही अब्बा परिवार समेत दिल्ली आ गए। एक रोज बोले उससे–‘नई चली फिटफिटिया पर बैठनें को शैकिया रही हैं सवारियां इधर। दिल्ली चलते हैं, बरखुरदार ! बड़ा शहर है। वहां फिटफिटिया ही फिटफिटाया भरी हुई हैं सड़कों पर। सवारियां तांगा देख ललकती हैं बैठने को। सुना है, किराया भी मुंहमांगा मिलता है....’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book